वक़्त की इक़्तिज़ा थी
  अंजुमन भी निराली थी
  अब्र से चमके अब्सार
  अदा आगोश सम्भाली थी 
अक्स बना अख्ज़ मेरा
  जैसे कोई दिवाली थी
  अजनबी सी अन्धेरे में
  वो गेशु लंम्बे डाली थी 
झलक रहा था शबाब
  पर्दे के पार जाली थी
  अदीब भी अदा करे
  वो ऐसी मतवाली थी 
झाँक कर देखूं चिलमन में
  शान उसकी निराली थी
  पाश से गुजरी तो देखा
  वो मेरी घरवाली थी 
शब्द – १ अब्र =बादल  २ अब्सार =आँखे
  ३ अख्ज़ =लूटेरा ४ अदीब =विद्वान  

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