पहाड़ की  घुमावदार  सड़कें ,
  जो  खुद  को  ही  तलाशती  हैं .
  और  –
   दूर  गांव  की  एक  ड्योढ़ी ,
  जिसे  किसी  की  आमद  का  है  इंतज़ार .
सड़कें  भी  अजीब  सी –
    एक  बड़ा  सा  पहाड़ ,
  और  उस  पर  तीन
    परत  दर  परत  सड़कें !
शाम  हो  चली  है ,
  अब  तक  तो  आ  जाना  चाहिए  था .
  यही  सोचती  है  वो ,
  पर  उसकी  आँखों  से  आस  नहीं  जाती .
वह  आयी  ड्योढ़ी  पे ,
  एक  नज़र  भर  टटोला उन  पहाड़ी  सड़कों  को,
  जिन  पैर  अब बस  की  हेडलाइट  की  रोशनियाँ  टिम-टिमाती हैं ,
  और खेलती  हैं  लूका-छिपी .
  फिर वह  चली  गयी  वापस , शायद  तवे  पे  रखी रोटी  जल  रही  थी .
पर  कह  गयी  पड़ोस  के  बच्चे  से ,
  अगर  वो  आ  जाये , तो  खबर  करना ,
  सामान भी  तो  बहुत  लाता  हैi – भारी  सा .
  किताबें  बस  किताबें ,
  जो  कुढतीं  हैं  खुद  पर
  हवा  खाती  हैं ,
  बस  की , रेल और  टैक्सी  की .

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