बुधवार, 25 मार्च 2015

इंतज़ार

पहाड़ की घुमावदार सड़कें ,
जो खुद को ही तलाशती हैं .
और –
दूर गांव की एक ड्योढ़ी ,
जिसे किसी की आमद का है इंतज़ार .

सड़कें भी अजीब सी –
एक बड़ा सा पहाड़ ,
और उस पर तीन
परत दर परत सड़कें !

शाम हो चली है ,
अब तक तो आ जाना चाहिए था .
यही सोचती है वो ,
पर उसकी आँखों से आस नहीं जाती .

वह आयी ड्योढ़ी पे ,
एक नज़र भर टटोला उन पहाड़ी सड़कों को,
जिन पैर अब बस की हेडलाइट की रोशनियाँ टिम-टिमाती हैं ,
और खेलती हैं लूका-छिपी .
फिर वह चली गयी वापस , शायद तवे पे रखी रोटी जल रही थी .

पर कह गयी पड़ोस के बच्चे से ,
अगर वो आ जाये , तो खबर करना ,
सामान भी तो बहुत लाता हैi – भारी सा .
किताबें बस किताबें ,
जो कुढतीं हैं खुद पर
हवा खाती हैं ,
बस की , रेल और टैक्सी की .

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