पिछले पहर से सुन रहा था एक मधुर आवाज
  तेरी छनकती सी छनछनाहट का हुआ आभास
  अम्बर  पे सबेरे का अभी पेहरा  अधूरा  था
  तेरी काया पे भी सौंदर्य का कुछ चेहरा अधूरा था
  अधूरे थे अभी तूफान के कुछ बोल भय वाले
  हृदय  में  थे  भरे आधे-अधूरे  प्रेम  के  प्याले
शूलों में फंसी काया में निर्बलता शिथिलता थी
  तड़पती क्लांत अस्थिर तू मैं चुपचाप स्थिर था
  भयावह था विकट ये दृश्य तेरा घाव गहरा था
  छिटकती धूप में प्रतिविम्ब अंगों का सुनहरा था
  विव्हळता थी मेरे मन में भाव कुछ प्रश्न सूचक था
  तेरा संघर्ष और साहस, बड़ा ही कौतुहल सा था
कदाचित लग रहा तू नृत्य करती मग्न होकर के
  या फिर तू तड़पती उस शूल की घनघोर पीड़ा से
  मेरा मन सोचता बस जा इसी तू सुखी टहनी पे
  तुझे बस देखता रह जाऊं इस निर्जीव चेहरे से
  बसेरा  सोचता था मैं  इसी  सुनसान  कोने में
  मेरे प्रत्यक्ष होगी  तू अगर  जाऊं  भी  सोने मैं
क्षण- क्षण सुन रहा था मैं तेरा छन-छन मधुर सा स्वर
  मन-मुग्ध होकर  चढ़ रहा   था  स्वार्थ  रूपी ज्वर
  इस स्वार्थ में हो लिप्त आधार मन का खो गया था
  कल्पनाओं में कहीं कैसे सहज ही सो गया था
  संतृप्त हो इस अवस्था से मन ये जब जागृत हुआ
  जल तरंगो के जैसे फिर से कहीं विस्तरित हुआ 
शब्दों की व्यवस्था में एक द्वन्द सा होने लगा
  जो विचारों के एक जटिल से धरातल पे टिक गया
  निर्जीव काया में सजीव मन ये क्यों चित्रित हुआ
  क्यों सजीवों का ये दुर्गुण हृदय में मिश्रित हुआ
  जीवित हुआ पोषित हुआ फिर ज्ञान से शोधित हुआ
  विस्मृत हुआ जो भाव था मन पटल पर स्थित हुआ 
होता अगर मानव  महा मानव  असीमित शक्तिशाली मैं
  बचाता तुझको सारी व्याधि-विपदा और दु:खों की महामारी से
  लेकिन मैं निर्बल हूँ जर्जर हूँ और घृणित सा तिरस्कारी
  बस  प्रार्थना करता उन्ही से, जो हैं  सुखों के अधिकारी
  धन्य है नभचर जो बैठा था थकावट शांत करने
  ले गया तुझको उड़ाकर तेरी व्यथा का अन्त करने 
पवन के श्रृंग-गर्तों में उड़ी थी मस्त होकर के
  छुप गए प्रेम के प्याले हृदय में सुप्त होकर के
  हवा के रास्तो में तू खुले  अम्बर  की  रानी सी
  यहाँ में ठोकरों में व्यस्त कुछ कदमों का राही सा
  कहीं ये स्वप्न था मेरा अभी तक हक्का-वक्का हूँ
  तू सुन्दर झूमती थैली मैं खाली टिन का डिब्बा हूँ

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