एक जमाना बीत गया, मोहब्बत का दीया जलाते हुए!
  थकी नहीं, थमी नहीं, ये बेधड़क बेतुकी बात करने की आदतें,
  तो हर लम्हा ही गुजरा, गम-ए-बंदगी में मुस्कुराते हुए!
  बेशक़ कटतीं हैं रातें अब भी, करवटों के साये में,
  कि सुलझी नहीं गुथियां, सवालों के तारों की!
  समझ न आया क्या गुनाह हुआ अनजाने में,
  क्या रह गई कसर वफ़ा निभाने में?
  ना-उम्मीद नहीं हुई ये निग़ाहें, फ़क़्त नूर आँखों से ढल गया!
  मंजिल तो एक थीं, फिर क्यों रास्ता बदल गया?
  सोचा कभी तो आओगे तुम. सब भूल गले लगाओगे तुम!
  की तुम भी जी नहीं सकते हमारे बिन, ये एहसास दिलाओगे तुम!
  हक़ीक़त ग़र कुछ और थी, शायद मोहब्बत की डोर ही कमजोर थी!
  कि यूँ बिछड़े हम, ज़िन्दगी की मझधार में,
  उनींदी फिर हर रात गुजरी, तेरे आने के आस में!
  थरथराते हैं लब अब तलक, ये दास्ताँ सुनाते हुए,
  एक जमाना बीत गया, मोहब्बत का दीया जलाते हुए!!
  -श्रेया आनंद
  (9th Dec, 2014)
रविवार, 1 मार्च 2015
एक जमाना बीत गया, मोहब्बत का दीया जलाते हुए!
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