सोमवार, 9 मार्च 2015

यादें

जब भी यादों की टूटी हुई छत की दरारों से

कुछ बूंदे टपकती हैं

ना जाने क्यों कहीं कुछ जला – जला सा लगता है

क्यों गूंजती हैं कानो में वो उनकही बातें

क्यों हमको यूँ लगता है की इस बार नमकीन पानी

जयादा है मेरे दामन में किनारों से

फिर भी हमने सीख लिया है

जीना उस नमी के साथ जो अक्सर ही मौजूद रहती है

कहीं ना कहीं मेरे बिस्तर के सिरहनो पे

फिर भी लगता है की हम खुश हैं

उस कश्ती में जिसका कोई रिश्ता नहीं किनारों से

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