जब भी यादों की टूटी हुई छत की दरारों से
कुछ बूंदे टपकती हैं
ना जाने क्यों कहीं कुछ जला – जला सा लगता है
क्यों गूंजती हैं कानो में वो उनकही बातें
क्यों हमको यूँ लगता है की इस बार नमकीन पानी
जयादा है मेरे दामन में किनारों से
फिर भी हमने सीख लिया है
जीना उस नमी के साथ जो अक्सर ही मौजूद रहती है
कहीं ना कहीं मेरे बिस्तर के सिरहनो पे
फिर भी लगता है की हम खुश हैं
उस कश्ती में जिसका कोई रिश्ता नहीं किनारों से
Read Complete Poem/Kavya Here यादें
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें