अनदेखी पीड़ाओं मुस्कुराहट में बदलती
रगत-पसीनें में देखो सबकी नजर लगती |
चिल्लाते-भटकते वो पागल आदमी
घरवाले भी उससे मुड़कर यूं चलती |
कैसे हुवा,क्यूँ हुवा उसकी ये दशा
नहीं होता परवाह समाज न घरका |
किसीको तमासा किसीको जीनेकी वजह
अपनी सलामती दूसरोंकी बर्बादी सबकी चाह |
धर्म करती मर्म कुचलती ये कैसा है रीत
अपनी घाव दुखता दूसरों के हो तो हँसता |

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