रविवार, 8 मार्च 2015

मै अधर हूँ

मै अधर हूँ अपने छवि का
मै फज़ल हूँ अपने अक्स का

एक बचे हुए मेरे आशियें में
मै हूँ यहीं मै हूँ कहीं ,
बस पंख पसारे रहता हूँ
कुछ उड़े उड़े कुछ बिखरे से
.
मेरे शब्द जो टूटे फूटे हैं,
मै उसे ही सजाता रहता हुँ
कुछ घोर काले मेघों से
मै स्लेट बनाया करता हूँ

मै अधर हूँ अपने छवि का
वो अधर जो मेरा था कभी,
मै फज़ल हूँ अपने अक्स का
जो अक्स मेरा था कभी…

–तनमय उकिल

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