शनिवार, 7 मार्च 2015
सुनहरा कल कुछ नई उम्मीदें जगी हैं इक बार फिर नई किरण दिखी है उस पार फिर सामने की बस्ती में खुला है फिर बंद पड़ा था कब से वो सकूल कुछ दिखने लगी है हलचल फिर नन्ही आवाजें गूँज रही हैं इक बार फिर सुबह की नींद मेरी खुलने लगी है सकूल की प्रारथना से इक बार फिर बच्चे जो घूमते थे यूं इधर उधर पढने लगेंगे सकूल में इक बार फिर बच्चे जो यूंही पन्ने पलटते थे बस समझेंगे तसवीरों को इक बार फिर करते थे बातें आसमानों की बस भरेंगे नई उडाने वो इक बार फिर कयों ये सरकारी बंदे समझते नहीं करेंगे कुछ नेक काम वो तो फिर पा जाएंगें दुआएं कितने गरीबों की संवार जाएंगे किसमत अंजाने में ही भारत के आने वाले कल की ही । -तरसेम कौर 'सुमि'
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